लेखक: खालिद अनीस अंसारी
आरक्षण पर भारतीय न्यायशास्त्र ने पारंपरिक रूप से एक संकीर्ण दृष्टिकोण अपनाया है। ये अक्सर विशेष प्रावधानों को समानता के अधिकारों (अनुच्छेद 14, 15 (1), और 16 (1) के अपवाद के रूप में या केवल सक्षम करने वाले प्रावधानों के रूप में तैयार करता है, न कि इसके अभिन्न तत्व के रूप में। इस दृष्टिकोण के कारण आरक्षण को विविधता के माध्यम से दक्षता सुनिश्चित करने के साधन के बजाय दक्षता या गरीबी उन्मूलन के उपाय के साथ समझौता के रूप में देखा जाने लगा है। वैसे हकीकत ये है कि उपवर्गीकरण यानी कोटा के भीतर कोटा का सुप्रीम कोर्ट का फैसला फैसला एससी/एसटी समूहों के भीतर विविधता को सही ढंग से स्वीकार करता है। यह उपवर्गीकरण की वैधता को बरकरार रखता है। यह एससी/एसटी आरक्षणों पर क्रीमी लेयर सिद्धांत को लागू करने का विचार भी पेश करता है। क्रीमी लेयर का कॉन्सेप्ट पहले ओबीसी आरक्षण तक सीमित था।
इस फैसले को एससी/एसटी समुदाय से मिली-जुली प्रतिक्रियाएं मिली हैं, जिसमें क्रीमी लेयर सिद्धांत को लागू करने का कड़ा विरोध किया गया है। उपवर्गीकरण के सिलसिले में, यह फैसला राज्यों पर बाध्यकारी नहीं है, लेकिन एक सक्षम प्रावधान के रूप में कार्य करता है, जो राज्यों को न्यायिक समीक्षा के अधीन, ठोस डेटा के आधार पर उपवर्गीकरण करने की इजाजत देता है। अपेक्षाकृत कम वंचित और कथित तौर पर थोड़ी ऊंची एससी/एसटी जातियां- जैसे महार, चमार, जाटव, दुसाध आदि ने उपवर्गीकरण का विरोध किया है। उनका कहना है कि पहले कोटा का उचित क्रियान्वयन तो हो जाए। निजी क्षेत्र में आरक्षण दिया जाए। उनकी दलील है कि उपवर्गीकरण से सामाजिक एकता पर असर पड़ेगा। डेटा की कमी का हवाला देते हुए वे सब-कोटा के बजाय अपस्किलिंग और आर्थिक पैकेज दिए जाने पर जोर दे रहे हैं। वे इसे एससी/एसटी को विभाजित करने के लिए आरएसएस-बीजेपी की चाल के रूप में भी देखते हैं।
इनमें से कुछ तर्क पारंपरिक रूप से आरक्षण के खिलाफ कथित अगड़ी जातियों की ओर से दिए जाने वाले तर्कों को दोहराते हैं। इस फैसले के खिलाफ 21 अगस्त के भारत बंद को मुख्य रूप से यूपी, बिहार, महाराष्ट्र और राजस्थान के बुद्धिजीवियों, पार्टियों और संगठनों का समर्थन प्राप्त था, जहां अग्रणी एससी/एसटी जातियों का वर्चस्व है। मायावती, चंद्रशेखर आजाद, चिराग पासवान, प्रकाश आंबेडकर, रामदास आठवले जैसे नेताओं ने बंद का जोरदार समर्थन किया। इसके उलट, सबसे ज्यादा वंचित मानी जाने वालीं एससी जातियां- जैसे वाल्मीकि, मडिगा, अरुणथियार, मान, मुसहर, हेला, बांसफोर, धानुक, डोम आदि बंद से काफी हद तक दूर रहीं। खासकर दक्षिण भारत (तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना) में जहां उप-वर्गीकरण पर बहस अधिक अडवांस है।
इन समूहों ने आंतरिक न्याय के बिना एक एकीकृत एससी/एसटी श्रेणी के विचार को एक दिखावा के रूप में चुनौती दी है। जाति जनगणना और अन्य तर्कों की मांगों को यथास्थिति बनाए रखने की रणनीति और पूर्व शर्त के रूप में देखा है। उनका तर्क है कि सार्वजनिक रोजगार और शिक्षा में प्रतिनिधित्व पर डेटा पहले से ही मौजूद है। कम से कम कच्चे रूप में तो डेटा मौजूद ही है।
कई आयोगों ने उपवर्गीकरण की मांग का अध्ययन किया है और उसका समर्थन किया है। इसकी मांग 1970 के दशक में पंजाब से जोर पकड़ी थी, जिसे 1990 के दशक से मडिगा आरक्षण पोराटा समिति जैसे संगठनों के माध्यम से गति मिली। ये दर्शाता है कि इसे केवल राजनीतिक हेरफेर के रूप में खारिज नहीं किया जा सकता है।
फैसले का सबसे विवादास्पद पहलू क्रीमी लेयर सिद्धांत का विस्तार है। दिलचस्प बात यह है कि क्रीमी लेयर दविंदर सिंह मामले या इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ मामले (1992) में मुद्दों में से नहीं था, जहां नौ सदस्यीय पीठ ने फैसला दिया था कि क्रीमी लेयर सिद्धांत केवल ओबीसी पर लागू होगा, एससी/एसटी पर नहीं। इसके बावजूद, सात जजों की बेंच ने एससी/एसटी आरक्षण पर क्रीमी लेयर सिद्धांत को लागू करने की वकालत की है, जिससे उन लोगों में चिंता बढ़ गई है जो इसे आरक्षण के उद्देश्य को कमजोर करने वाला मानते हैं।
कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने साफ किया है कि क्रीमी लेयर एससी/एसटी कोटे पर लागू नहीं होता है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले ने इस सिद्धांत को एससी/एसटी श्रेणी पर लागू किए जाने की संभावना का द्वार खोल दिया है।
विडंबना देखिए। अपेक्षाकृत थोड़ी सक्षम एससी/एसटी जातियों के तर्क पारंपरिक रूप से कोटा के खिलाफ अगड़ी जातियों की तरफ से दिए गए तर्कों जैसे ही दिखते हैं। आरक्षण का उद्देश्य निर्णय लेने वाले स्थानों में हाशिए पर पड़े समूहों के लिए प्रतिनिधित्व और आवाज सुनिश्चित करना है, न कि केवल गरीबी उन्मूलन या रोजगार सृजन के लिए एक उपकरण के रूप में। क्रीमी लेयर सिद्धांत को लागू करने से आरक्षण का उद्देश्य ही खत्म हो सकता है खासकर क्लास ए नौकरियों में अगर इसे लागू किया गया तो। क्लास ए नौकरी पाने वाला शख्स सीधे-सीधे महत्वपूर्ण निर्णय प्रक्रिया का हिस्सा होता है। यह पीढ़ीगत विशेषाधिकारों और सांस्कृतिक पूंजी वाले उच्च जाति के अधिकारियों को पहली पीढ़ी के ओबीसी अधिकारियों के खिलाफ खड़ा करता है, जो अक्सर बाद वाले को प्रभावशाली पदों से हटा देता है। इससे नीति निर्माण में उनकी ‘आवाज’ कम हो जाती है।
अंबेडकर ने कहा था, ‘शिक्षा शेरनी का दूध है। एक बार जब आप इसे पी लेते हैं, तो आप दहाड़ने से नहीं बच सकते।’ सबसे अधिक शिक्षित ओबीसी को आरक्षण से बाहर करने से ओबीसी श्रेणी में उनकी हिस्सेदारी कम हो जाती है। कोटा में कोटा का विरोध करने वालीं जातियों को जाति जनगणना, कोटा पर 50% की सीमा को हटाना, क्रीमी लेयर प्रावधान, निजी क्षेत्र में विविधता बढ़ाना आदि जैसे अन्य मुद्दों पर व्यापक बहुजन एकजुटता की मांग करते हुए साक्ष्य-आधारित उपवर्गीकरण को स्वीकार करना चाहिए। संकीर्ण जातिगत हित अंधा कर सकते हैं। वैसे भी उप-वर्गीकरण पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटने के लिए किसी भी संविधान संशोधन की संभावना बहुत ही कम है क्योंकि जेडीयू और टीडीपी जैसे एनडीए सहयोगी उप-वर्गीकरण का समर्थन कर रहे हैं।
(लेखक अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी, बेंगलुरु में समाजशास्त्र के असोसिएट प्रोफेसर हैं। विचार व्यक्तिगत हैं)