Tuesday, January 21, 2025
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Arvinder Lovely: क्या दिल्ली के ‘नीतीश कुमार’ बने लवली; भाजपा में एंट्री से क्या इंडी गठबंधन को लगेगा झटका

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एक सप्ताह पहले 28 अप्रैल को दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने वाले अरविंदर सिंह लवली शनिवार को दूसरी बार भाजपा में शामिल हो गए। इसके पहले भी कांग्रेस नेता अजय माकन से मतभेद के कारण उन्होंने 18 अप्रैल 2017 को कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया था। लेकिन भाजपा से वैचारिक तालमेल न बैठ पाने के कारण और कोई बड़ी जिम्मेदारी न मिलने की वजह से दस महीने में ही 17 फरवरी 2018 को वापस कांग्रेस में लौट आए थे। पार्टी से बगावत कर भाजपा में जाने के बाद भी कांग्रेस में वापस आने के बाद उन्हें बड़ी जिम्मेदारी मिली और 31 अगस्त 2023 को उन्हें एक बार फिर से दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी दे दी गई थी। लेकिन एक बार फिर दिल्ली कांग्रेस प्रभारी दीपक बाबरिया से गहरे मतभेद के कारण एक बार फिर भाजपा में चल दिए।     

बार-बार पार्टियों की इस अदला-बदली में उन्हें दिल्ली का ‘नीतीश कुमार’ कहा जाने लगा है। बिहार के मुख्यमंत्री और जेडीयू नेता नीतीश कुमार समय-समय पर भाजपा और राष्ट्रीय जनता दल को अपने साथ लेकर राज्य में सरकार बनाने-बिगाड़ने के लिए जाने जाते हैं। लवली के पाला बदल के समय दो प्रश्न महत्त्वपूर्ण हैं- पहला तो यह कि अरविंदर सिंह लवली जैसे नेताओं की जनता पर कितनी पकड़ है? भाजपा में जाने के बाद वे उसके लिए कितने उपयोगी साबित हो सकते हैं? भाजपा को जो लाभ होगा, वह कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का नुकसान होगा। यानी इसी प्रश्न का दूसरा पहलू है कि लवली के भाजपा में जाने से कांग्रेस और इंडी गठबंधन को कितना नुकसान होगा? 

अरविंदर सिंह लवली माने क्या?
भाजपा-कांग्रेस के लाभ-नुकसान के आकलन से पहले यह जान लेते हैं कि अरविंदर सिंह लवली की स्थिति क्या है? इस समय जनता पर उनकी कितनी पकड़ है, जिसका लाभ वे भाजपा को दिला सकते हैं? अरविंदर सिंह लवली दिल्ली में शीला दीक्षित सरकार के समय शिक्षा, परिवहन, पर्यटन मंत्रालय सहित कई महत्वपूर्ण विभागों की जिम्मेदारी संभाल चुके हैं। सिख समुदाय के एक लोकप्रिय चेहरे के तौर पर देखे जाते हैं। पूर्वी दिल्ली में गांधी नगर स्थित अपने आवास के आसपास के लोगों के बीच लोकप्रिय हैं। गांधी नगर और आसपास के एरिया सहित पूरी दिल्ली में सिख समुदाय के मतदाताओं को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। 

कितने मतदाता साथ?
जनता पर अरविंदर सिंह लवली की पकड़ है, लेकिन यह पकड़ इतनी भी मजबूत नहीं है कि आज वे अपने दम पर कोई बड़ा चुनाव जीत सकें। कांग्रेस के टिकट पर चार बार गांधी नगर विधानसभा सीट से विधायक चुने जा चुके अरविंदर सिंह लवली को 2020 के विधानसभा चुनाव में करीब 22 हजार वोट ही मिले। इसके पहले 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के गौतम गंभीर जैसे बड़े स्टार के सामने उन्हें 3.04 लाख वोट मिले थे। 

मतों का विश्लेषण बताता है कि आम आदमी पार्टी के उभार के साथ ही मतदाताओं ने अपनी प्राथमिकता बदल दी है। यानी जिन मतदाताओं की प्राथमिकता कभी कांग्रेस हुआ करती थी, बाद में उन्होंने आम आदमी पार्टी को पसंद कर लिया। यही कारण है कि लवली जिस सीट पर अजेय चेहरे के तौर पर देखे जा रहे थे, बाद में वही बहुत कमजोर हो गए। 

हालांकि यह भी सच है कि यह अरविंदर सिंह लवली ही थे, जो भाजपा-आम आदमी पार्टी के मजबूत उम्मीदवारों के बीच भी अपने लिए अच्छी खासी संख्या में वोट ला सके। इन वोटों में कांग्रेस को मिले वोट कितने हैं, और स्वयं उनके नाम से मिलने वाले वोट कितने हैं, यह अलग बहस का विषय हो सकता है। लेकिन स्थानीय लोगों का मानना है कि अरविंदर सिंह लवली जैसा मजबूत चेहरा होने के कारण ही कांग्रेस विपरीत परिस्थितियों में भी इतना वोट लाने में सफल रही है। यानी मतदाताओं पर उनकी निजी पकड़ के आधार पर भी उन्हें खारिज नहीं किया जा सकता। 

लोकसभा-विधानसभा में पड़ेगा असर
राजनीतिक विश्लेषक विवेक सिंह ने अमर उजाला से कहा कि इस चुनाव में जिस तरह कम मतदान हो रहा है, इस बात की संभावना ज्यादा है कि इस बार हार-जीत के बीच बहुत कम मतों का अंतर रह जाए। ऐसे चुनावों में अपने चेहरे के बल पर 20-25 हजार वोटों को भी इधर से उधर करने की क्षमता रखने वाला नेता किसी भी पार्टी के लिए महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं। भाजपा ने जिस तरह इस बार दिल्ली में अपने सामान्य कार्यकर्ताओं को लोकसभा चुनावों में उतारा है, जीत-हार के बीच अंतर कम हो सकता है। ऐसी परिस्थितियों में अरविंदर सिंह लवली जैसे नेता भाजपा के लिए उपयोगी साबित हो सकते हैं, जो अपने दम पर अपने इलाकों में 20-25 हजार वोट इधर से उधर कर सकते हैं।  

भाजपा जिस तरह लवली, नसीब सिंह और राजकुमार चौहान जैसे नेताओं का स्वागत कर रही है, उसके पीछे यही कारण दिखाई दे रहा है। राजकुमार चौहान भी उत्तर-पश्चिम दिल्ली में लवली की तरह का असर पैदा कर सकते हैं। अगले वर्ष फरवरी में ही दिल्ली के विधानसभा चुनाव भी होने हैं। भाजपा उसे भी ध्यान में रखकर ऐसे नेताओं को अपने साथ जोड़ रही है। विधानसभा चुनावों का क्षेत्र छोटा होने के कारण ऐसे नेता उस चुनाव में बहुत प्रभावी साबित हो सकते हैं।   

प्रबंधन-राजनीतिक अनुभव
विवेक सिंह ने कहा कि लंबा राजनीतिक-प्रशासनिक अनुभव रखने वाले अरविंदर सिंह लवली केवल मतों का ट्रांसफर करने में ही सफल नहीं होंगे, बल्कि अपने अनुभव से वे प्रबंधन में भी भाजपा को लाभ पहुंचा सकते हैं। भाजपा के पास आज भी बड़े सिख चेहरे के तौर पर कोई नेता नहीं है। अरविंदर सिंह लवली जैसे नेता दिल्ली में उसकी यह कमी पूरी कर सकते हैं। इसके अलावा बड़े चेहरों के पार्टी में शामिल होने से जनता के बीच उस पार्टी को लेकर एक सकारात्मक संदेश जाता है। भाजपा को इसका भी लाभ मिल सकता है।

ये डर बरकरार
लेकिन, चूंकि एक बार पहले भी विचारधारा से तालमेल न बैठ पाने के कारण लवली कांग्रेस में अपनी घर वापसी कर चुके हैं, इस बात की संभावना हो सकती है कि यदि भाजपा ने उनका सही से इस्तेमाल न किया, तो वे एक बार फिर अपनी अलग राह अपना सकते हैं। बीरेंद्र सिंह जैसे नेताओं ने भाजपा में दस साल बिताने और महत्वपूर्ण पदों का आनंद उठाने के बाद भी जिस तरह कांग्रेस में वापसी की है, उससे इस बात की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता कि लवली जैसे नेता एक बार फिर कहीं और दिखाई दें। 

हालांकि, भाजपा ने कांग्रेस से आए नेताओं हेमंत बिस्वा सरमा और ज्योतिरादित्य सिंधिया को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देकर और आरपीएन सिंह जैसे नेताओं को राज्यसभा भेजकर उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को संतुष्ट करने की कोशिश की है।   

भाजपा का दावा खोखला, आजादी की दूसरी लड़ाई में करें बलिदान- कांग्रेस 
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राजेश लिलोठिया ने लवली के भाजपा में शामिल होने पर अमर उजाला से कहा कि इससे एक बात तो प्रमाणित होती है कि भाजपा अपने दम पर सरकार बनाने नहीं जा रही है। उसका 400 सीटों पर जीत का दावा भी खोखला है। यदि उसे अपनी जीत का पूरा भरोसा होता, तो वह अरविंदर सिंह लवली जैसे नेताओं को नहीं लेती, जिन्होंने बार-बार पार्टी बदलकर अपनी विश्वसनीयता सवालों के घेरे में डाल दिया है। 

लिलोठिया ने कहा कि बात केवल हार-जीत की भी नहीं है। ज्यादा बड़ी बात विचारधारा के प्रति किसी के समर्पण होने की है। उनका मानना है कि राहुल गांधी इस समय भाजपा-आरएसएस की विचारधारा के खिलाफ एक निर्णायक लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसे समय में उनके साथ वही खड़ा रहेगा, जो वैचारिक तौर पर कांग्रेस के साथ जुड़ा होगा। केवल लाभ के लिए किसी पार्टी में आने-जाने वाले लोग इस लड़ाई में ज्यादा लंबे समय तक साथ नहीं दे सकते।

लिलोठिया ने आज की स्थिति की तुलना आजादी के उस काल से की, जब लोग अपना आर्थिक हित त्यागकर देश की आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। उनका कहना है कि यह समय अपने हितों को ध्यान में रखने का नहीं, बल्कि देश के लोकतांत्रिक मूल्यों के रक्षा की है। इसके लिए निजी हितों को अलग रखकर लड़ाई लड़ने की आवश्यकता है। 

ध्यान दे शीर्ष नेतृत्व
वहीं, दिल्ली कांग्रेस में एक महत्वपूर्ण पद पर काम कर रहे एक नेता के अनुसार, इसे केवल अरविंदर सिंह लवली का निजी स्वार्थ कहकर नहीं छोड़ा जा सकता। जब से उन्होंने दिल्ली कांग्रेस का अध्यक्ष पद संभाला था, वे पार्टी को मजबूत करने के लिए दिन रात काम कर रहे थे। पार्टी के सभी नेता उनके काम से परिचित भी हैं। लेकिन जिस तरह संगठन में किसी पद पर किसी को बिठाने और उम्मीदवारों के चयन में उनकी उपेक्षा की गई, उसे किसी तरह से सही नहीं कहा जा सकता। 

नेता के अनुसार, शुरू से लेकर अब तक अरविंद केजरीवाल के साथ जाने में पंजाब की तरह दिल्ली कांग्रेस के भी कई नेता मुखर थे। इस बात की जानकारी पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे से लेकर राहुल गांधी तक को दी गई थी। कोई भी नेता कांग्रेस पर बेसिर पैर के आरोप लगाने वाले केजरीवाल का शराब घोटाले में बचाव करने से सहमत नहीं था। नेताओं का कहना था कि जिस तरह केजरीवाल ने कांग्रेस को कटघरे में खड़ा कर दिल्ली-पंजाब में अपनी राजनीतिक जमीन बनाई थी, आज उसी तरह कांग्रेस को दिल्ली में अपनी वापसी की कोशिश करनी चाहिए। पंजाब में पार्टी इसी नीति पर चल रही है। ऐसे में दिल्ली में भी उसे इसी नीति पर चलने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने इसकी उपेक्षा की, जिसका परिणाम लवली की विदाई के रूप में सामने आया। 

भाजपा में भी बढ़ रहा संदेह
दूसरी पार्टियों के नेताओं के लगातार भाजपा में आने से उसके अपने कार्यकर्ताओं में असुरक्षा की भावना और संदेह बढ़ रहा है। इस बार लोकसभा टिकट की असफल दावेदारी कर चुके एक भाजपा नेता ने अमर उजाला से कहा कि जिस तरह दूसरी पार्टियों के नेताओं को लाकर पार्टी में बड़े पद दिए जा रहे हैं, उससे उन कार्यकर्ताओं की उपेक्षा हो रही है जो वर्षों से पार्टी की विचारधारा का झंडा उठाए घूम रहे हैं। पार्टी नेतृत्व वैचारिक विस्तार को ध्यान में रखकर ऐसे नेताओं को गले लगा रहा है, लेकिन बीरेंद्र सिंह जैसे नेताओं ने यह साबित कर दिया है कि उनके लिए अपना निजी स्वार्थ ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। ऐसे में उनका मानना है कि दूसरे दलों से आ रहे नेताओं को एक सीमित महत्व ही दिया जाना चाहिए। 

नेता का दावा तो यहां तक है कि इस बार बहुत से बूथों पर कम मतदान के पीछे भी मूल कार्यकर्ताओं की उपेक्षा एक बड़ा कारण हो सकती है। कई जगहों पर मूल कार्यकर्ता दूसरे दलों के नेताओं-कार्यकर्ताओं की पूछ बढ़ने से अपने आपको उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। इसका असर मूल कार्यकर्ताओं में उदासी के रूप में सामने आ रहा है। उन्होंने कहा कि किरण बेदी को चेहरा बनाकर पार्टी दिल्ली विधानसभा के चुनावों में एक बार धोखा खा चुकी है, यदि उसने अपनी विचारधारा के प्रति लंबे समय से समर्पित कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की, तो लंबे समय में उसे इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है।

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