मप्र विधानसभा का बजट सत्र 1 जुलाई से शुरू हुआ। वित्त मंत्री जगदीश देवड़ा ने 3 जुलाई को बजट पेश किया। दो दिन बाद 5 जुलाई को बजट सत्र खत्म हो गया। इस दौरान बजट भी पास हो गया और बिना चर्चा के 6 विधेयक भी पारित हो गए, जबकि सत्र की अवधि 14 दिनों की तय हुई
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ये तो केवल एक बानगी है। मप्र विधानसभा के सत्र में बैठकों की संख्या लगातार कम हो रही है। इस बार 16 दिसंबर से शुरू हो रहा शीतकालीन सत्र भी 5 दिनों का है। पिछले सत्रों में बैठकों की कम संख्या को देखते हुए सवाल उठ रहे हैं कि क्या ये सत्र भी पूरा चलेगा?
दैनिक भास्कर ने मध्यप्रदेश विधानसभा का रिकॉर्ड खंगाला तो पता चला कि 1998 से लेकर जुलाई 2024 तक इन 26 सालों में बैठकों की संख्या 93% घट गई है। ये भी पता चला कि सत्र के दौरान केवल 10 फीसदी विधायक ही सवाल पूछ पाते हैं।
एक्सपर्ट कहते हैं कि इसका सबसे ज्यादा नुकसान जनता का हो रहा है। भास्कर ने सत्ता पक्ष और विपक्ष के विधायकों से भी बात की तो सत्ता पक्ष के विधायक भी कहते नजर आए कि बैठकों की संख्या बढ़ना चाहिए। विधानसभा के एक सत्र में कितनी बैठकें होना चाहिए, बैठकों की संख्या कम क्यों हो रही है? विधानसभा की कार्यवाही पर कितना खर्च हो रहा है? ये जानने के लिए पढ़िए पूरी रिपोर्ट-
5 पॉइंट्स में जाानिए कैसे हो रहा जनता का नुकसान
1. जनहित से जुड़े विषयों पर पर्याप्त चर्चा नहीं विधानसभा के इसी मानसून सत्र में मप्र में खुले नलकूप में इंसानों के गिरने से होने वाली दुर्घटनाओं की रोकथाम और सुरक्षा विधेयक 2024 पारित हुआ। इस विधेयक में नलकूप की ड्रिलिंग की जिम्मेदारी तय करने के साथ भूमि स्वामी और ड्रिलिंग एजेंसी पर कार्रवाई तय करने का प्रावधान है।
साथ ही खुले बोरवेल में या नलकूप के खिलाफ की गई शिकायतों के समाधान के लिए किसी सरकारी अधिकारी को कार्रवाई करने का अधिकार दिया गया है। मगर, जब ये विधेयक विधानसभा के पटल पर रखा गया तो इस पर ज्यादा बहस नहीं हुई। इसके समर्थन में पोहरी के कांग्रेस विधायक कैलाश कुशवाह ही बोले।
सत्तापक्ष की तरफ से एक भी विधायक ने इस बहस में हिस्सा नहीं लिया। मंत्री के बोलने के बाद विधेयक सर्वसम्मति से पास हो गया।
इसके बाद बजट की विभागीय अनुदान मांगों पर चर्चा नहीं हुई बल्कि सभी मांगों पर एक साथ चर्चा हुई। इस प्रक्रिया को गिलोटिन कहते हैं। विधानसभा के पूर्व प्रमुख सचिव भगवान देव इसराणी कहते हैं कि जब विभागीय अनुदान मांगों पर चर्चा होती है तो इसमें विधायक हिस्सा लेते हैं।
चर्चा के दौरान वो संबंधित विभाग से जुड़ी अपने क्षेत्र की समस्याएं मंत्रियों के सामने रखते हैं। विभागीय मंत्री और अधिकारियों को भी मौका मिलता है अपने विभाग की उपलब्धि बताने का। इस बजट सत्र में जब विभागीय अनुदान मांगों पर एक साथ चर्चा हुई तो न विधायक को और न ही मंत्री को कुछ कहने का मौका मिला। ये लोकतंत्र के लिहाज से बिल्कुल ठीक नहीं है। इससे सबसे बड़ा नुकसान जनता का हो रहा है।
2. विधानसभा की बैठकों की संख्या में कमी विधानसभा के पूर्व मुख्य सचिव भगवानदेव इसरानी कहते हैं कि बैठकों का कम होना सबसे बड़ी चिंता की वजह है। विधानसभा जनहित के मुद्दे उठाने का सबसे प्रभावी मंच है। इसे लोकतंत्र का मंदिर कहते हैं। इसी जगह लोगों की बात नहीं रखी जाएगी तो उनका पहले से जो भरोसा कम हुआ है वो और कम होगा।
इसरानी कहते हैं कि विधानसभा की बैठकों की कम होती संख्या का मुद्दा कई बार पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में उठ चुका है। वे कहते हैं कि साल 2003 में लोकसभा में ऐसा ही सम्मेलन हुआ था। जिसमें सभी राज्यों के विधानसभा अध्यक्ष और सचिवों ने हिस्सा लिया था। इसमें सुझाव आया कि संसद में 100 दिन की बैठकें होना चाहिए।
एमपी, यूपी, राजस्थान जैसी बड़ी विधानसभाओं के लिए 75 बैठकों का सुझाव दिया गया। ये सब तय हुआ, लेकिन इस पर अमल नहीं हुआ। इसरानी कहते हैं कि संविधान में तीन सत्र आहूत करने का प्रावधान है, लेकिन बैठकों को लेकर संविधान साइलेंट है। संविधान की इसी कमजोरी का फायदा उठाया जाता है।
3. 10% विधायकों को ही प्रश्न करने का मौका इसे ऐसे समझिए, पिछले मानसून सत्र में 14 बैठकें होना थी, लेकिन सिर्फ 5 हुईं। इन पांच दिनों में तीन दिन प्रश्नकाल हुआ। एक दिन बजट और एक दिन पूर्व विधायकों के निधन के कारण प्रश्न काल नहीं हुआ था। तीन दिनों में 75 विधायक अपने सवालों का जवाब मंत्रियों से ले सकते थे, लेकिन 38 विधायकों ने मंत्रियों से सवाल-जवाब किए।
यदि इस सत्र के दौरान निर्धारित 14 बैठकें होती और बिना व्यवधान के प्रश्नकाल होता तो 350 विधायक सवाल के जवाब मंत्रियों से ले सकते थे। यानी सिर्फ 10 फीसदी को ही जवाब मिला।
4. एक दिन के प्रश्नकाल का खर्च 50 लाख रु. एक दिन के प्रश्नकाल पर औसतन 50 लाख रु. तक व्यय आता है। ये राशि विधानसभा की एक दिन की बाकी कार्यवाही के कुल खर्च से भी ज्यादा है, क्योंकि सदन की हर घंटे की कार्यवाही 2.50 लाख रु. की पड़ती है। यदि 5 घंटे सदन चला तो कुल खर्च 12.50 लाख तक आता है।
4. नए विधायकों की प्रैक्टिकल ट्रेनिंग नहीं विधानसभा में इस बार 230 में से 70 नए विधायक हैं। इनमें से कांग्रेस के 24, भारत आदिवासी पार्टी का एक और बीजेपी के 45 विधायक हैं। नए विधायक ज्यादा से ज्यादा सवाल करें इसके लिए विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष गिरीश गौतम ने एक प्रयोग किया था। उन्होंने व्यवस्था बनाई थी कि सत्र में एक दिन ऐसा होगा जब प्रश्नकाल के दौरान केवल नए विधायक ही सवाल पूछेंगे।
साल 2023 के बजट सत्र के दौरान 15 मार्च को ऐसा पहली बार किया भी गया था। विधानसभा के पूर्व प्रमुख सचिव भगवान देव इसरानी कहते हैं कि जब सत्र की अवधि और बैठकों की संख्या कम होगी तो नए विधायकों को मौका कहां से मिलेगा।
वे बताते हैं कि विधायक जो सवाल पूछते हैं उसका जवाब तैयार करने में विधायक, उसका स्टाफ, विधानसभा के स्टाफ का वेतन, संभाग और जिला स्तर पर होने वाला खर्च शामिल होता है। इस तरह एक सवाल का जवाब तैयार करने में औसत 50 हजार रुपए तक खर्च होते हें। कुछ सवालों के जवाब जुटाने में गांवों से भी जानकारी मंगाई जाती है। इनका खर्च 75 हजार से एक लाख रुपए तक चला जाता है।
5. बजट सत्र को लेकर गंभीर नहीं जनप्रतिनिधि मध्य प्रदेश की 11वीं विधानसभा में दिग्विजय सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार ने फरवरी-मार्च 1999 में बजट पेश किया था जो 52 दिन के सत्र का था। यह अब तक की पांच विधानसभाओं का सबसे ज्यादा बैठकों का बजट सत्र रहा है।
इस सत्र की 31 बैठकों में बजट पर विधायकों ने चर्चा की और तब मध्य प्रदेश का बजट पारित हुआ था। इसके बाद से आज तक कभी भी 31 बैठकों का बजट सत्र नहीं रहा। दिग्विजय सरकार के इसके बाद के चार बजट सत्र भी 25 से 28 बैठकों वाले रहे।
15वीं विधानसभा आते-आते 22 साल में बजट जैसे गंभीर मामले में बैठकों की संख्या आठ से 13 के बीच रह गई। डॉ. मोहन सरकार ने मानसून सत्र (1 से 5 जुलाई) के दौरान मध्य प्रदेश का वर्ष 2024-25 का बजट (3 लाख 65 हजार करोड़ ) सदन में पेश किया था। इस दौरान सिर्फ पांच बैठकें हुई।
कम बैठकों को लेकर सत्ता पक्ष-विपक्ष के विधायक क्या कहते हैं?
भास्कर ने पहली बार चुनकर आए विधायकों से पूछा कि उन्हें सदन में बोलने का कितना मौका मिला तो सत्ता पक्ष के कुछ ही विधायकों ने कहा कि उन्हें कम बोलने का मौका मिला। कुछ अपनी पार्टी के खिलाफ खुलकर बोलने से बचते रहे। वहीं, विपक्ष के विधायकों ने खुलकर कहा कि विधायकों को अपनी बात रखने का मौका नहीं मिल रहा। ये लोकतंत्र के लिहाज से ठीक नहीं है।