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वह फैसला जो लागू रहता तो शायद अतुल जैसे लोगों को नहीं गंवानी पड़ती जान

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वह फैसला जो लागू रहता तो शायद अतुल जैसे लोगों को नहीं गंवानी पड़ती जान

Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में दहेज उत्पीड़न कानून के दुरुपयोग को रोकने के लिए सख्त दिशा-निर्देश दिए थे, लेकिन 2018 में महिला संगठनों के विरोध के बाद यह आदेश बदल दिया गया.

By : निपुण सहगल | Edited By: Pooja Kumari | Updated at : 11 Dec 2024 01:57 PM (IST)

Dowry Laws: दहेज उत्पीड़न कानून के दुरुपयोग को लेकर सुप्रीम कोर्ट अक्सर चिंता जताता रहता है. देश की सबसे बड़ी अदालत ने 2017 में कानून के गलत इस्तेमाल की रोकथाम के लिए एक ठोस आदेश भी पारित किया था, लेकिन 2018 में महिला संगठनों की मांग पर इस आदेश को बदल दिया. इस लेख में हम उसी मामले की चर्चा करेंगे.

2017 का फैसला

27 जुलाई 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने दहेज उत्पीड़न के झूठे मुकदमों से लोगों को बचाने के लिए अहम आदेश दिया था. जस्टिस आदर्श गोयल और उदय उमेश ललित की बेंच ने कहा था कि आईपीसी 498A से जुड़ी शिकायतों को देखने के लिए हर जिले में एक फैमिली वेलफेयर कमिटी का गठन किया जाए. कमिटी की रिपोर्ट के आधार पर ही मामले में आगे की कार्रवाई की जाए.

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश यह थे :-

* देश के हर जिले में फैमिली वेलफेयर कमिटी का गठन किया जाए. इसमें पैरा लीगल स्वयंसेवक, रिटायर्ड लोगों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, सेवारत ऑफिसर्स की पत्नियों या अन्य लोगों को रखा जा सकता है. कमिटी के लोगों को दहेज मामलों पर जरूरी कानूनी ट्रेनिंग दी जाए.

* 498 A की शिकायतों को पहले कमिटी के पास भेजा जाए. कमिटी मामले से जुड़े पक्षों से बात कर सच्चाई समझने की कोशिश करें. अधिकतम 1 महीने में रिपोर्ट दे। अगर जरूरी हो तो जल्द से जल्द संक्षिप्त रिपोर्ट दें.

* आम हालात में कमिटी की रिपोर्ट आने से पहले कोई गिरफ्तारी न हो. बेहद जरूरी स्थितियों में ही रिपोर्ट आने से पहले गिरफ्तारी हो सकती है. रिपोर्ट आने के बाद पुलिस के जांच अधिकारी या मजिस्ट्रेट उस पर विचार कर आगे की कार्रवाई करें.

* अगर पीड़िता की चोट गंभीर हो या उसकी मौत हो गई हो तो पुलिस गिरफ्तारी या किसी भी उचित कार्रवाई के लिए आजाद होगी.

इसके अलावा 2017 के इस फैसले में कोर्ट ने पुलिस और अदालतों की भूमिका पर भी कई अहम निर्देश दिए थे। कोर्ट ने कहा था :-

  • हर राज्य 498A के मामलों की जांच के लिए जांच अधिकारी तय करें. ऐसा एक महीने के भीतर किया जाए. ऐसे अधिकारियों को उचित ट्रेनिंग भी दी जाए.
  • ऐसे मामलों में जिन लोगों के खिलाफ शिकायत है.  पुलिस उनकी गिरफ्तारी से पहले उनकी भूमिका की अलग-अलग समीक्षा करें. सिर्फ एक शिकायत के आधार पर सबको गिरफ्तार न किया जाए.
  • जिस शहर में मुकदमा चल रहा है उससे बाहर रहने वाले लोगों को हर तारीख पर पेशी से छूट दी जाए. मुकदमे के दौरान परिवार के हर सदस्य की पेशी अनिवार्य न रखी जाए.
  • अगर डिस्ट्रिक्ट जज सही समझें तो एक ही वैवाहिक विवाद से जुड़े सभी मामलों को एक साथ जोड़ सकते हैं. इससे पूरे मामले को एक साथ देखने और हल करने में मदद मिलेगी.
  • भारत से बाहर रह रहे लोगों का पासपोर्ट जब्त करने या उनके खिलाफ रेड कॉर्नर नोटिस जारी करने जैसी कार्रवाई एक रूटीन काम की तरह नहीं की जा सकती. ऐसा बेहद जरूरी हालात में ही किया जाए.
  • वैवाहिक विवाद में अगर दोनों पक्षों में समझौता हो जाता है तो जिला जज आपराधिक मामले को बंद करने पर विचार कर सकते हैं.

2018 में बदला फैसला

2017 के फैसले के खिलाफ महिला संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. उन्होंने कहा कि इस फैसले के बाद दहेज उत्पीड़न के मामलों में गिरफ्तारी बंद हो गई है. इससे महिलाओं पर अत्याचार की आशंका बढ़ गई है. 14 सितंबर 2018 को सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली 3 जजों की बेंच ने इन याचिकाओं पर फैसला दिया. इस फैसले में कहा गया कि फैमिली वेलफेयर कमिटी के गठन का कोई प्रावधान कानून में नहीं है. इसलिए दहेज उत्पीड़न की शिकायतों को समीक्षा के लिए फैमिली वेलफेयर कमिटी के पास नहीं भेजा जा सकता. यह जांच अधिकारी पर निर्भर करता है कि गिरफ्तारी जरूरी है या नहीं.

हालांकि इस फैसले में भी सुप्रीम कोर्ट ने दहेज उत्पीड़न कानून के दुरुपयोग पर चिंता जताई थी. कोर्ट ने यह भी कहा था कि व्यक्तिगत पेशी से छूट या सभी मुकदमों की एक साथ सुनवाई के लिए कोर्ट में CrPC 205 और 317 के प्रावधान के तहत कोर्ट में आवेदन दिया जा सकता है.

ये भी पढ़ें: Cold Wave: दिल्ली में शीतलहर का कहर, कश्मीर में तापमान शून्य से 5.4 डिग्री नीचे, यूपी के कई जिलों में घना कोहरा

Published at : 11 Dec 2024 01:57 PM (IST)

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