Wednesday, January 15, 2025
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पूरब में क्षेत्रीय दलों के सहारे कांग्रेस, पार्टी के फैसले भी लेने लगी RJD-JMM

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कांग्रेस 2024 के लोकसभा चुनाव में 2019 की 44 सीटों के मुकाबले 99 सीटें जीत कर विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी बन गई है. उसके वोटों में भी इजाफा हुआ हुआ है. लेकिन, पूर्वी भारत के चार राज्यों में कांग्रेस की स्थिति अब भी क्षेत्रीय दलों से बेहतर नहीं है. अपने अस्तित्व के लिए कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों की दया पर ही निर्भर रहने की मजबूरी है.

Source: News18Hindi Last updated on:September 8, 2024 8:42 AM IST

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पूरब में क्षेत्रीय दलों के सहारे कांग्रेस, पार्टी के फैसले भी लेने लगी RJD-JMM

बिहार-झारखंड सहित पूर्वी भारत के चार राज्यों में कांग्रेस की स्थिति अब भी क्षेत्रीय दलों से बेहतर नहीं है.

कांग्रेस को इस बात का गुमान है कि इस बार लोकसभा चुनाव में उसकी स्थिति पहले के दो चुनावों के मुकाबले काफी बेहतर हुई है. लोकसभा चुनाव 2024 में कांग्रेस को 21.19 प्रतिशत वोट मिले, जो 2019 के 19.67 प्रतिशत वोट से मामूली अधिक है. कांग्रेस की सीटें भी 2019 के मुकाबले बढ़ीं. कांग्रेस को 2019 में 52 सीटें मिली थीं. 2024 में 99 हो गईं. इसके बावजूद कांग्रेस को पूर्वी भारत में क्षेत्रीय दलों के भरोसे रहना पड़ रहा है. कांग्रेस पिछले तीन दशकों से पूर्वी भारत के चार राज्यों में किसी न किसी पार्टी की पिछलग्गू बनती रही है. ऐसा नहीं कि कांग्रेस ने अपनी इस स्थिति से उबरने का इस दौरान कोई प्रयास नहीं किया.

कांग्रेस पार्टी का तो 2014 तक देश में शासन ही रहा है. सरकार भले गठबंधन की थी, लेकिन पीएम मनमोहन सिंह तो कांग्रेस के ही थे. सोनिया गांधी भी तब सक्रिय थीं.

कांग्रेस की अपनी जमीन भी प्रायः हर राज्य में है. इसके बावजूद राज्यों से कांग्रेस की विदाई का सिलसिला शुरू हुआ तो किसी ने उसकी परवाह नहीं की. बाद में आधे-अधूरे मन से ही प्रयास हुए. राज्य इकाइयां नाम भर की रह गईं. पदाधिकारी बदलते रहे, पर कांग्रेस मरणासन्न पड़ी रही. चूंकि कांग्रेस को गठबंधन बना कर केंद्र में अपनी सरकार चलाने का चस्का लग चुका था, इसलिए राज्यों में कांग्रेस ने दूसरे दलों की चेरी बनने में संकोच नहीं किया. बिहार में लालू यादव की पार्टी आरजेडी की कांग्रेस चेरी बनी तो उत्तर प्रदेश में मायावती की बसपा और अखिलेश यादव की सपा के पीछे कांग्रेस खड़ी होती रही. पहले कांग्रेस दूसरों की मददगार बनती थी, अब उसे दूसरे की मदद का आसरा है. बिहार-यूपी जैसे बड़े राज्यों की बात छोड़ भी दें, तो झारखंड जैसे छोटे राज्य में भी कांग्रेस को क्षेत्रीय पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा का पिछलग्गू बनना पड़ा है.

बिहार में कांग्रेस का कैंडिडेट तय करते हैं लालू

बिहार में कांग्रेस की हालत यह है कि लोकसभा चुनाव में आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव की सहमति के बिना पार्टी अपने उम्मीदवारों का चयन नहीं कर सकी. इसका सबसे बड़ा उदाहरण पूर्णिया के मौजूदा सांसद पप्पू यादव रहे. पप्पू ने अपनी जन अधिकार पार्टी (JAP) का विलय चुनाव से पहले ही कांग्रेस में कर दिया था. उन्होंने कहा भी कि कांग्रेस ने उन्हें पूर्णिया से उम्मीदवार बनाने का आश्वासन दिया है. चूंकि आरजेडी बिहार में इंडिया ब्लॉक का नेतृत्व कर रहा था, इसलिए पार्टी के निर्देश पर उन्होंने लालू यादव और उनके बेटे तेजस्वी यादव से आवास पर जाकर मुलाकात की. पप्पू खुश होकर निकले, लेकिन पीछे से आरजेडी ने अपने उम्मीदवार की घोषणा कर दी. लालू के आगे कांग्रेस लाचार हो गई. हालांकि पप्पू यादव निर्दलीय चुनाव लड़कर जीत गए. कांग्रेस औरंगाबाद की सीट मांगती रह गई, लेकिन आरजेडी ने नहीं दी.

हद तो तब हो गई, जब लालू यादव ने प्रदेश कांग्रेस के मुख्यालय में यह कह दिया कि अखिलेश सिंह को उन्होंने ही बिहार कांग्रेस का अध्यक्ष बनवाया. इसका किसी ने प्रतिवाद भी नहीं किया. यानी कांग्रेस का संचालन भी बिहार में लालू यादव ही कर रहे हैं.

यूपी में सीटों के लिए सपा पर निर्भर कांग्रेस

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस कभी काफी प्रभावशाली होती थी. आज उसे अपने अस्तित्व के लिए समाजवादी पार्टी की ओर टकटकी लगानी पड़ती है. लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा का उपचुनाव, कांग्रेस कभी सीटों के लिए समाजवादी पार्टी पर दबाव बनाने की स्थिति में नहीं होती. लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस को अगर यूपी में छह सीटों पर जीत मिली तो इसमें समाजवादी पार्टी का ही योगदान है. गठबंधन के बावजूद सपा ने कांग्रेस को सिर्फ 17 सीटें ही लड़ने के लिए दी थीं. यूपी में कांग्रेस का पत्ता तो मुलायम सिंह और मायावती के सीएम रहते ही कट गया था. वर्ष 2014 में तो उसकी ऐसी दुर्गति हुई कि उसे दो संसदीय सीटों से ही संतोष करना पड़ा था. अब तो समाजवादी पार्टी इंडिया ब्लाक में कांग्रेस के बाद दूसरे नंबर की पार्टी हो गई है. इसलिए विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस के पिछलग्गू बने रहने की ही ज्यादा संभावना है.

जेएमएम झारखंड में कांग्रेस के लिए बड़ी पार्टी

झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) क्षेत्रीय पार्टी है. झारखंड में राष्ट्रीय स्तर की पार्टी कांग्रेस को अब उसके इशारे पर चलना पड़ता है. कांग्रेस के नए प्रदेश अध्यक्ष केशव महतो की नियुक्ति भी जेएमएम के कार्यकारी अध्यक्ष और सीएम हेमंत सोरेन की सलाह पर ही हुई बताईं जाती है. प्रदेश के नेताओं के बजाय कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को हेमंत सोरेन पर ही अधिक भरोसा दिखता है. कहा जाता है कि हेमंत ने कांग्रेस नेतृत्व को कुर्मी वोटों के लिए केशव महतो को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की सलाह दी थी. महतो कुर्मी बिरादरी से ही आते हैं. झारखंड में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक तकरीबन 16 प्रतिशत कुर्मी आबादी है. हालांकि कुर्मी नेता 26 प्रतिशत अपनी आबादी होने का दावा करते हैं.

अभी तक एनडीए के घटक आजसू के नेता सुदेश महतो कुर्मी वोटों के एकमात्र दावेदार थे. इस बार कुर्मी बिरादरी से झारखंडी भाषा खतियान संघर्ष समिति (JBKSS) के नेता जयराम महतो भी बिरादरी के वोटों के दावेदार बन गए हैं. हेमंत सोरेन ने कुर्मी वोटों में बंटवारा करने के लिए ही केशव महतो को प्रदेश अध्यक्ष बनाने के लिए कांग्रेस को सलाह दी थी.

बंगाल में ममता बनर्जी ने नकार दिया कांग्रेस को

बंगाल में तो करीब पांच दशक से कांग्रेस हाशिए पर है. अब तो बंगाल में कांग्रेस का न कोई विधायक है और न सांसद. वामपंथी शासन के दौरान कांग्रेस का नामलेवा भी थे, लेकिन ममता बनर्जी के राज में कांग्रेस का सफाया ही हो गया है. ममता बनर्जी खुद को इंडिया ब्लाक का हिस्सा मानती और बताती रही हैं, लेकिन कांग्रेस से उनको भारी चिढ़ है. उपचुनाव जीतकर कांग्रेस का एक विधायक सदन में पहुंचा तो उसे भी ममता ने अपनी पार्टी में शामिल करा लिया. लोकसभा चुनाव में तो कांग्रेस से ममता ने गठबंधन भी नहीं किया. बंगाल में कांग्रेस पुनर्जीवित हो पाएगी, इसकी संभावना फिलवक्त दूर-दूर तक नहीं दिख रही है.

पूरब में लगातार पिछड़ती ही जा रही है कांग्रेस

विपक्षी एकता के बावजूद कांग्रेस को इस बार लोकसभा चुनाव में झारखंड में 19.19 प्रतिशत वोट मिले. बिहार में कभी सत्ता में रही कांग्रेस को 9.2 प्रतिशत वोटों से ही संतोष रपना पड़ा. उत्तर प्रदेश में स्थिति सुधरने के बावजूद कांग्रेस 9.46 प्रतिशत ही वोट ला पाई. पश्चिम बंगाल में तो कांग्रेस का सफाया ही हो गया. वोट भी उसे महज 4.68 प्रतिशत ही मिले. कांग्रेस नेता राहुल गांधी 99 सीटों आने के बाद भले प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे हों, लेकिन सच यह है कि विपक्षी गोलबंदी का साथ मिलने पर ही वे कोई कमाल दिखा सकते हैं. अपने भरोसे तो कांग्रेस को यह उम्मीद पालनी भी नहीं चाहिए.

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)

ब्लॉगर के बारे में

ओमप्रकाश अश्क

प्रभात खबर, हिंदुस्तान और राष्ट्रीय सहारा में संपादक रहे. खांटी भोजपुरी अंचल सीवान के मूल निवासी अश्क जी को बिहार, बंगाल, असम और झारखंड के अखबारों में चार दशक तक हिंदी पत्रकारिता के बाद भी भोजपुरी के मिठास ने बांधे रखा. अब रांची में रह कर लेखन सृजन कर रहे हैं.

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First published: September 8, 2024 8:42 AM IST

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