ये मौका दस साल बाद आया है. जम्मू कश्मीर में सरकार बनाने की उम्मीद लिए पार्टियां मैदान में हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शनिवार (14 सितंबर) को वोट मांगने डोडा पहुंचे. डोडा ने करीब चार दशक बाद किसी प्रधानमंत्री का चेहरा देखा. वैसे नरेंद्र मोदी का यह दौरा इसी वजह से खास नहीं रहा. इस दौरे की अहमियत कई कारणों से रही.
क्यों अलग है इस बार का जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव
जम्मू कश्मीर में इस बार का विधानसभा चुनाव कई मायने में बदले माहौल में हो रहा है. सबसे बड़ा बदलाव तो राज्य के भूगोल और इसकी हैसियत में ही हो गया है. राज्य दो केंद्र शासित प्रदेशों (जम्मू-कश्मीर और लद्दाख) में बंट गया है. जम्मू-कश्मीर अपना विशेष दर्जा खो चुका है (धारा 377 निरस्त होने की वजह से). परिसीमन के चलते जम्मू-कश्मीर में सीटों की संख्या बढ़कर 87 से 90 हो गई है. प्रतिबंधित संगठन जमात-ए-इस्लामी से ताल्लुक रखने वाले लोग भी चुनावी रण में सक्रिय हैं.
पीएम मोदी के लिए क्यों अहम है यह चुनाव
भाजपा और खास कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए जम्मू कश्मीर का यह चुनाव खास महत्व रखता है. इस चुनाव के नतीजे मोदी सरकार के एक बड़े फैसले पर जनता का नजरिया सामने लाएगा. जी हां, यह फैसला धारा 370 को निरस्त कर जम्मू कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा खत्म करने और उसकी हैसियत घटा कर केंद्र शासित प्रदेश का कर देने का है.
पूरा चुनाव धारा 370 को वापस लाने और नहीं लाने के एजेंडे पर लड़ा जा रहा है. भाजपा कह रही अब धारा 370 वो इतिहास बन गई है, जिसे दोहराया नहीं जा सकता. बाकी सभी प्रमुख पार्टियां इसे वापस लाने के पक्ष में हैं.
धारा 370 को हटाना भाजपा का पुराना एजेंडा था, लेकिन कश्मीर की जनता इसे किस रूप में देखती है, इसका संकेत इस चुनाव के नतीजे से ही मिल पाएगा. हालांकि दस साल पहले हुए चुनाव में बीजेपी को जनता का सबसे ज्यादा समर्थन मिला था. तब 22.98 प्रतिशत वोट लाकर वह सबसे आगे थी. हालांकि, सीटों के मामले में पिछड़ गई थी. तब 22.67 वोट लाने वाली पीडीपी के साथ मिल कर पहली बार भाजपा कश्मीर में सत्तानशीं भी हुई थी.
जम्मू कश्मीर में ऐसे मजबूत होती गई भाजपा
भाजपा कश्मीर में लगातार फली-फूली है. 2002 को छोड़ दें तो हर चुनाव में उसने अपना प्रदर्शन बेहतर किया है. 1983 में तीन से 2014 में 23 प्रतिशत (वोट शेयर) के साथ शीर्ष तक पहुंची है. और, शायद यही वजह रही कि 2019 में उसने कश्मीर को लेकर अपना पुराना एजेंडा दृढ़ता से अमल में लाया. उसे अब इसका असल परिणाम देखने का इंतजार है.
पिछले विधानसभा में दलों को मिले वोटों का प्रतिशत.
लेकिन, इस चुनाव में भाजपा के लिए चुनौतियां भी कम नहीं हैं. एक चुनौती तो पार्टी का बदला माहौल ही है. 2014 में नरेंद्र मोदी ने भाजपा के लिए जो माहौल बनाया था और जिस दम-ख़म से सरकार बनाई थी, अभी न वह माहौल है और न वैसे दम-खम से इस बार केंद्र में उनकी सत्ता लौटी है. शायद इसी का असर है कि जम्मू कश्मीर में इस चुनाव में भाजपा कार्यकर्ताओं और नेताओं का जो विरोध-विद्रोह देखने को मिला वैसा हाल के वर्षों में बीजेपी नेतृत्व को शायद ही देखने को मिला हो.
दस साल से पार्टी के लिए काम करने के बाद अब किनारे लगाए जा रहे नेता पार्टी के लिए बड़ी चुनौती खड़ी कर सकते हैं. बगावत थामने के लिए पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कुछ नेताओं को ज़िम्मेदारी दी है, लेकिन माना जा रहा है कि यह बिल्ली को दूध की रखवाली करने का जिम्मा देने जैसा है. चुनाव के बड़े मुद्दे पर भाजपा को छोड़ कर लगभग सभी पार्टियों का एक मत होना भी बीजेपी के लिए चुनौती ही है. आंकड़ों के लिहाज से भी देखें तो दस साल पहले बीजेपी और पीडीपी को करीब 23-23 फीसदी वोट मिले थे. कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस को 18-18 प्रतिशत. ये दोनों पार्टियां इस बार साथ लड़ रही हैं.
जमात-ए-इस्लामी के कई पूर्व नेता भी मैदान में हैं. इनकी रैलियों को मिल रहे समर्थन से इनकी उम्मीदें भी काफी बढ़ गई हैं. 1987 के बाद पहली बार जमात चुनावी मैदान में सक्रिय है. इसने अपने पूर्व सदस्यों को चुनाव में उतारा है और कुछ निर्दलीयों को समर्थन भी दिया है. राज्य के चुनावों में निर्दलीयों की अच्छी ख़ासी भूमिका का इतिहास रहा है. 1987 के विधानसभा चुनाव में करीब 35 फीसदी वोट निर्दलीय उम्मेदवारों को मिले थे. 2002 और 2008 में भी इन्होंने 16 प्रतिशत वोट पर कब्जा कर लिया था. हालांकि 2014 में यह आंकड़ा 7 फीसदी के करीब ही था.
वैसे, राज्य में हुए सबसे ताजा चुनाव (लोकसभा) के आंकड़े बीजेपी को उत्साहित करने वाले हैं. इस साल हुए लोकसभा चुनाव मे जम्मू कश्मीर में बीजेपी को 46 फीसदी से ज्यादा वोट मिले, जबकि काँग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस मिल कर भी बीजेपी से 10 फीसदी कम पर ही रह गई थीं. यह ट्रेंड विधानसभा चुनाव में बनाए रखना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती होगी.
लोकसभा चुनाव में दलों को मिले वोट प्रतिशत.
भाजपा ने वैसे ज्यादा ज़ोर कश्मीर के बजाय जम्मू में लगाया है. अमित शाह ने पहले कहा था कि भाजपा सभी सीटों पर चुनाव लड़ेगी. लेकिन, पार्टी ने कश्मीर घाटी में अंततः 47 में से केवल 19 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया. पार्टी के इस फैसले से कई नेता चुनाव लड़ने से वंचित रह गए. इससे स्थानीय कई वरिष्ठ नेता नाराज भी बताए जाते हैं. उनका मानना है कि सत्ता की चाबी अकेले जम्मू या कश्मीर के नतीजों से नहीं खुलेगी.
पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी को कश्मीर में एक भी सीट नहीं मिली थी, लेकिन जम्मू में उसे 25 सीटें मिल गई थीं. पीडीपी को राज्य में 28 सीटें मिली थीं. इस बार भी भाजपा का फोकस जम्मू पर ही है. कश्मीर में वह 19 सीटों पर लड़ रही है. कश्मीर में इस बार इंजीनियर राशिद भी एक फैक्टर बताए जाते हैं. लोकसभा चुनाव में वह जेल से ही जीत गए थे. कश्मीर में उनकी अवामी इत्तेहाद पार्टी को 14 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त मिली थी, जबकि पीडीपी को केवल पाँच और नेशनल कॉन्फ्रेंस को 34 में.
जम्मू कश्मीर में छह साल से निर्वाचित सरकार नहीं है. 20 दिसम्बर 2018 से केंद्र में सत्ताधारी भाजपा सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर राज्यपाल के जरिये या फिर एलजी के जरिये राज्य का शासन चल रहा है. उसके पहले भी बीजेपी-पीडीपी का शासन था. राज्य में सत्ता विरोधी लहर भी मजबूत बताई जा रही है और इसका सामना अकेली भाजपा को ही करना होगा. ऐसे में इस लिहाज से भी प्रधानमंत्री की डोडा यात्रा को अहम माना जाना चाहिए.
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FIRST PUBLISHED :
September 14, 2024, 19:11 IST