हाइलाइट्स
15 अगस्त 1947 के दिन कश्मीर में आजादी का कोई जश्न नहीं मना रहा थामहाराजा हरि सिंह चाहते थे कश्मीर का विलय किसी देश में नहीं हो, वो आजाद ही रहे जब लॉर्ड माउंटबेटन महाराजा से बात करने गए तो वह मिले ही नहीं
1947 में जब अंग्रेजों ने भारत और पाकिस्तान को दो देश में बांटने का फैसला किया तो 550 से ज्यादा रियासतों से कहा गया कि वो ये तय कर लें कि वो खुद का विलय किस ओर करना चाहते हैं. हालांकि इसमें कई किंतु-परंतु और कई शर्तें भी थीं. 15 अगस्त 1947 और उसके बाद के कई महीनों में भारत में मौजूद तमाम रियासतों ने विलय पर रजामंदी जाहिर कर दी. बस एक ही रियासत थी, जो किसी भी ओर नहीं गई थी, वो जम्मू-कश्मीर था.
ये रियासत भारत और पाकिस्तान के ठीक बीचों बीच थी और प्रादेशिक तौर पर ये भारत के प्रादेशिक राज्यों में सबसे बड़ा था. 15 अगस्त1947 के बाद से इसके भूगोल से जुड़ा महत्व कई गुना बढ़ गया. तब भी और उसके बाद से अब तक इस राज्य ने काफी हद तक भारत और पाकिस्तान दोनों की विदेश नीति से जुड़े पहलुओं को तय किया है. अद्रिजा रॉयचौधरी ने इसे लेकर इंडियन एक्सप्रेस में एक रिपोर्ट लिखी है.
शिकार और गोल्फ में गुजरती थी महाराजा हरि सिंह की जिंदगी
इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखा है, “एक हिंदू द्वारा मुस्लिम आबादी पर शासन करने की विसंगति भूगोल की एक दुर्घटना से और भी जटिल हो गई.” 1947 में कश्मीर के शासन की बागडोर हरि सिंह के हाथों में थी. उन्होंने 1925 में गद्दी संभाली. वह अपना ज्यादा समय रेस कोर्स और शिकार में बिताते थे. अपनी आत्मकथा में, हरि सिंह के बेटे और राजनीतिज्ञ कर्ण सिंह ने पिता के खिलाफ मां की शिकायत के बारे में लिखा, “वह बस चापलूसी करने वाले दरबारियों और पसंदीदा लोगों से घिरे रहते हैं और वास्तव में कभी नहीं जान पाते कि बाहर क्या चल रहा है.”
कर्ण सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा कि मां अक्सर शिकायत करती थीं, महाराजा बस चापलूसी करने वाले दरबारियों और पसंदीदा लोगों से घिरे रहते हैं और वास्तव में कभी नहीं जान पाते कि बाहर क्या चल रहा है. (file photo)
1940 के दशक में कश्मीर
हालांकि 1940 के दशक में, सिंह के लंबे समय से विरोधी रहे शेख मुहम्मद अब्दुल्ला कश्मीर के राजनीतिक परिदृश्य पर हावी थे. उच्च शिक्षित और फिर भी बेरोजगार अब्दुल्ला ने कश्मीर पर डोगरा शासन पर सवाल उठाना शुरू कर दिया.
उन्होंने कहा, “मैंने निष्कर्ष निकाला कि मुसलमानों के साथ दुर्व्यवहार धार्मिक पूर्वाग्रह का परिणाम था.” 1930 के दशक के दौरान, अब्दुल्ला अपने अनुयायियों के एक बड़े समूह को एकजुट कर रहे थे. फिर उन्होंने ‘नेशनल कॉन्फ्रेंस’ का गठन किया, जिसमें हिंदू, मुस्लिम और सिख शामिल थे. उन्होंने कश्मीर में एक प्रतिनिधि सरकार की मांग की. करीब उसी समय वह जवाहरलाल नेहरू और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) के भी करीब आ गए.
शेख अब्दुल्ला की लोकप्रियता बढ़ने लगी
1940 के दशक में अब्दुल्ला की लोकप्रियता बढ़ती गई. साथ ही महाराजा हरि सिंह के साथ उनके रिश्ते भी कटु होते गए. वे डोगरा राजवंश से ‘कश्मीर छोड़ने’ के लिए कहते थे. बदले में उन्हें बार बार जेल की सजा हुई. 1940 के दशक के मध्य तक हरि सिंह खुद अपने निजी जीवन में बदलाव से गुजर रहे थे.
1940 के दशक में अब्दुल्ला की लोकप्रियता बढ़ती गई. साथ ही महाराजा हरि सिंह के साथ उनके रिश्ते भी कटु होते गए.(file photo)
किस तरह स्वामी संत देव की कर्ण सिंह ने आलोचना की
अपनी आत्मकथा में, कर्ण सिंह ने लिखा है कि 1944 के आसपास, स्वामी संत देव नामक एक धार्मिक नेता डोगरा राजा के घराने से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे.उन्होंने लिखा, “मुझे लगता है कि मेरे पिता के निजी जीवन पर उनका प्रभाव बहुत अच्छा था. उन्होंने उन्हें धूम्रपान और शराब पीना छोड़ने के लिए कहा.”
सिंह ने आगे लिखा कि राजनीति के क्षेत्र में “स्वामीजी का प्रभाव विनाशकारी साबित हुआ. स्वामीजी ने सामंती महत्वाकांक्षा पर बहुत चतुराई से काम किया. मेरे पिता के मन में लाहौर तक फैले एक विस्तारित राज्य की कल्पना रोप दी.”
स्वतंत्र कश्मीर के हरि सिंह के सपने को उनके प्रधानमंत्री रामचंद्र काक ने और आगे बढ़ाया. 15 जुलाई को, महाराजा ने घोषणा की कि कश्मीरी खुद अफने भाग्यविधाता बनेंगे और किसी भी देश में विलय नहीं करेंगे. खुद एक स्वतंत्र देश रहेंगे.
महाराजा हरि सिंह आजाद कश्मीर का सपना देख रहे थे
जब महाराजा हरि सिंह स्वतंत्र कश्मीर का सपना देख रहे थे, तब अब्दुल्ला कश्मीरी युवाओं और नेहरू दोनों के साथ अपने संबंधों को मजबूत कर रहे थे. हैरानी की बात नहीं कि जब महाराजा ने अब्दुल्ला को कैद करवाया, तो नेहरू उनकी मदद के लिए दौड़े. हालांकि उन्हें कश्मीर में प्रवेश की अनुमति नहीं दी गई. गिरफ्तार कर लिया गया. सिंह लिखते हैं, “मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि उनकी गिरफ्तारी राज्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ थी.”
क्यों कश्मीर गए लॉर्ड माउंटबेटन
अप्रैल 1947 में लॉर्ड माउंटबेटन ने ब्रिटिश भारत के वायसराय का पदभार संभाला. गुहा लिखते हैं, “वह महाराजा हरि सिंह के पुराने परिचित थे.” उन्होंने आगे कहा कि “जून 1947 के तीसरे सप्ताह में, भारत को विभाजित करने का निर्णय लिए जाने के बाद, लॉर्ड माउंटबेटन कश्मीर के लिए रवाना हुए.” माउंटबेटन की कश्मीर यात्रा का एक खास राजनीतिक उद्देश्य था.
कर्ण सिंह लिखते हैं, “वास्तव में माउंटबेटन मेरे पिता को 15 अगस्त से पहले ही अपना मन बनाने के लिए मनाने आए थे और भारतीय नेताओं से यह आश्वासन लेकर आए थे कि वे उनके किसी भी फैसले पर आपत्ति नहीं करेंगे, चाहे वह पाकिस्तान में विलय ही क्यों न हो.”
श्रीनगर में जब माउंटबेटन ने कश्मीर के फैसले के बारे में पूछा तो प्रधानमंत्री काक ने तुरंत जवाब दिया कि वे स्वतंत्र रहना चाहते हैं. इसके बाद वायसराय ने महाराजा से मिलने का समय तय किया. गुहा लिखते हैं, “निर्धारित दिन, माउंटबेटन की यात्रा के आखिरी दिन हरि सिंह पेट दर्द के कारण बिस्तर पर ही रहे, शायद वह माउंटबेटन से मिलना ही नहीं चाहते थे, लिहाजा पेट दर्द का बहाना उनकी एक चाल थी.”
हरिसिंह अक्सर महत्वपूर्ण मौकों पर ऐसा ही करते थे
माउंटबेटन से मुलाकात से बचने के अपने पिता के फैसले के बारे में सिंह लिखते हैं, “किसी मुश्किल परिस्थिति से बचने के लिए मेरे पिता खासतौर पर ऐसा ही करते थे.इस तरह एक व्यावहारिक राजनीतिक समाधान निकालने का आखिरी मौका भी खो गया.”
कश्मीर ने क्यों किसी से विलय नहीं किया
15 अगस्त को जम्मू-कश्मीर ने न तो भारत में और न ही पाकिस्तान में विलय किया. सिंह लिखते हैं, “अगर वह पाकिस्तान में शामिल हो जाते तो उस समय उत्तर भारत में फैले सांप्रदायिक उन्माद के चलते राज्य के हिंदू इलाकों को लगभग खत्म कर दिया जाता.” वे आगे कहते हैं, “दूसरी तरफ अगर वह पहले भारत में शामिल हो जाते तो उसे अपने मुस्लिम नागरिकों के एक बड़े हिस्से से अलग-थलग पड़ने का जोखिम उठाना पड़ता.”
कश्मीर में बस कौन मना रहा था आजादी का जश्न
अनिश्चितता के इस माहौल में कश्मीर में आज़ादी का जश्न मनाने वाला शायद ही कोई था. 15 अगस्त 1947 को दस साल के रहे कश्मीरी कवि ज़रीफ़ अहमद ज़रीफ़ कहते हैं, “आज़ादी के दिन यहां बिजली गुल थी. सिर्फ़ शेख अब्दुल्ला और उनके कार्यकर्ता ही सचिवालय में जश्न मना रहे थे. उनके अलावा कोई और अपने घरों से बाहर नहीं निकल सकता था.”
दो महीने बाद क्या हुआ
दो महीने बाद 22 अक्टूबर को हज़ारों हथियारबंद लोगों की एक टुकड़ी ने राज्य में प्रवेश किया. ऐसा माना जाता है कि इनमें ज़्यादातर हमलावर पाकिस्तान के एक प्रांत से आए पठान थे. हालांकि ये अब भी विवादित है कि वो कैसे आए. उन्हें कैसे समर्थन मिला. हमलावरों ने जल्द ही कश्मीर के कुछ हिस्सों पर कब्ज़ा कर लिया, जिससे राज्य के सामाजिक ताने-बाने में उथल-पुथल मच गई.
सिंह लिखते हैं, “सीमा पार से हमलावर लगातार आ रहे थे, लूटपाट और बलात्कार कर रहे थे.” महाराजा हरि सिंह अपने परिवार के साथ जल्द ही श्रीनगर में अपना घर छोड़कर जम्मू में शरण लेने चले गए. सिंह लिखते हैं, “जब अगली शाम वो आखिरकार जम्मू पहुंचे और महल में रुके तो उन्होंने सिर्फ़ एक वाक्य कहा- ‘हमने कश्मीर खो दिया है.”
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FIRST PUBLISHED :
August 2, 2024, 12:04 IST