Saturday, January 11, 2025
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मोदी-खरगे में वार-पलटवार: न‍िशाना साधने में ये अहम बातें भूल गए

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कांग्रेस अध्‍यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने हाल में एक बात कही. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उस पर निशाना साधते हुए दूसरी बात कही. दोनों ही बातों में एक बात कॉमन थी. और वह कॉमन बात बड़ी अच्‍छी थी. तो कॉमन बात यह थी कि नेता जनता से वादे करते समय जमीनी हकीकत को नजरअंदाज न करें. खरगे की सलाह रही कि चुनाव से पहले वादे करते समय बजट का भी ध्‍यान रखें, वादे हवा-हवाई न हों. उधर, पीएम का कहना था कि अव्‍यावहारिक वादे करना तो बेहद आसान होता है, पर उन्‍हें पूरा करना उतना ही मुश्‍कि‍ल या असंभव होता है.

आपको लग रहा होगा ये तो सच में बड़ी अच्‍छी बात है. लेकिन, हैरान करने वाली बात यह है कि दो धुर विरोधी नेता एक जैसी बात कह रहे हैं! यह हैरानी तभी तक है जब तक आपने पूरी बात नहीं जानी है. इसलिए, संक्षेप में पहले यह समझाते हैं कि मामला क्‍या है और इस पर क्‍या राजनीति हो रही है?

पूरा मामला आख‍िर है क्‍या?
अपने चुनावी वादे के मुताबिक कर्नाटक की कांग्रेस सरकार की राज्‍य में सभी महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा कराने की योजना है. राज्‍य के उपमुख्‍यमंत्री डी.के. शिवकुमार ने एक बयान दिया, जिससे संदेश गया कि राज्‍य सरकार इस स्‍कीम में बदलाव करने पर विचार कर रही है. मुख्‍यमंत्री को स्‍पष्‍टीकरण देना पड़ा कि इस स्‍कीम में किसी तरह के बदलाव का कोई प्रस्‍ताव विचाराधीन नहीं है. खुद उप मुख्‍यमंत्री ने भी कहा कि उनके बयान को गलत तरीके से पेश किया गया है, क्‍योंकि उन्‍होंने सिर्फ यह कहा था कि कई महिलाओं का कहना है कि उन्‍हें कंपनी से यात्रा भत्‍ता मिलता है, इसलिए वह टिकट खरीद कर यात्रा करना चाहती हैं. उनके इस विचार पर परिवहन मंत्री से सलाह करने की बात उन्‍होंने कही थी, न कि यह कहा था कि स्‍कीम में बदलाव किया जाएगा.

संदेश क्‍या गया?
इसके बाद कांग्रेस अध्‍यक्ष खरगे ने डीके शिवकुमार को समझाया कि आपके इस बयान से महाराष्‍ट्र चुनाव के बीच ‘गलत संदेश’ गया है. ऐसे बयानों से लोगों में गारंटी पूरी करने की कांग्रेस की क्षमता को लेकर संदेह पैदा होता है. मैंने महाराष्‍ट्र के कांग्रेस नेताओं को कहा है कि वे बजट का ध्‍यान रखते हुए जनता से वादे करें . खरगे ने यह भी बताया कि कांग्रेस यह सुनिश्चित करना चाहती है कि चुनाव से पहले दी जाने वाली गारंटी हवा-हवाई न हो.

खरगे की बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा ने पकड़ ली. पीएम मोदी ने एक्‍स (पहले ट्विटर) पर लिखा कि कांग्रेस चुनाव दर चुनाव ऐसे वादे करती रही है जिन्‍हें पूरा कर पाना संभव नहीं है. अब कांग्रेस को समझ आ रहा है कि अवास्‍तविक वादे कर लेना तो बड़ा आसान है, लेकिन उन्‍हें निभाना बड़ा मुश्किल या फिर नामुमकिन ही है.

फ‍िर शुरू हुई राजनीत‍ि
इसके बाद इस पर और राजनीति हुई. कांग्रेस ने भी जवाब देकर लड़ाई आगे बढ़ाई. पूरी राजनीति के दौरान दोनों नेता या पार्टियां एक महत्‍वपूर्ण बात कहना भूल गईं. वह बात यह कि चुनावी वादों का केवल वास्‍तविक होना ही जरूरी नहीं है, बल्‍कि वे जनता, देश, समाज को आगे बढ़ाने वाले होने चाहिए, न कि उन्‍हें पीछे धकेलने वाले.

दो उदाहरण से समझें
महिलाओं को फ्री बस यात्रा कराने के वादे की ही बात करें तो यह ‘फ्री’ के नाम पर जनता को वोट देने के लिए लुभाने की कुटिल राजनीतिक चाल की एक कड़ी भर है. जो जनता यात्रा के पैसे देना चाहती है या दे सकती है, उसके लिए फ्री यात्रा से ज्‍यादा जरूरी है कि सही सर्व‍िस मिले.

उसी तरह, 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देने की योजना है. लोगों को मुफ्त अनाज देने से ज्‍यादा जरूरी है कि उन्‍हें इस लायक बनाया जाए कि वे अपनी कमाई से अपना पेट भरने लायक बन सकें. ऐसी योजनाओं के लिए बजट का इंतजाम कर लिया जा रहा है, फिर भी इनसे अर्थव्‍यस्‍था को नुकसान ही है. अंतत: यह जनता का ही नुकसान है.

ये तो महज दो उदाहरण हैं. इनका जिक्र करने का मकसद बस इतना है कि वादे ‘व्‍यावहारिक’ (रियलिस्टिक) तो हों ही, ‘लोकलुभावन’ (पॉप्‍युलिस्‍ट) भी नहीं होने चाहिए. वे जनता को भविष्‍य की चुनौति‍यों का सामना करने लायक बनाने वाले होने चाहिए.

एक और महत्‍वपूर्ण बात, चुनाव के वक्‍त वादे करते समय पार्टियों व नेताओं को मुख्‍य रूप से पांच साल के भीतर पूरा किए जाने लायक वादों पर ही फोकस करना चाहिए. अमल में लंबा वक्‍त लगने वाले वादों या राज्‍य-देश की दिशा तय करने के मामले में अपना विजन जरूर रखें और सत्‍ता में आने पर उस पर काम शुरू करने से सदन की सहमति से आगे बढ़ा जाना चाहिए. इससे सरकार बदलने पर भी उन वादों पर अमल में बाधा नहीं आने की संभावना मजबूत होगी.

कानूनी जवाबदेही से नहीं बंधे
बिना कुछ सोचे-समझे वादे करने की नेताओं की बढ़ती प्रवृत्ति के पीछे की एक वजह यह भी हो सकती है कि इसे लेकर वह किसी तरह की कानूनी जवाबदेही से नहीं बंधे होते हैं. वादे सिर्फ चुनाव जीतने के मकसद से किए जाते हैं. चुनाव जीत गए तो वादों की सार्थकता साबित हुई. जीतने के बाद वादे पूरे हुए या नहीं, यह कोई पूछने वाला नहीं होता. झारखंड का ही उदाहरण लें तो 2019 के विधानसभा चुनाव में सत्‍ताधारी गठबंधन की दोनों बड़ी पार्टियों – झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) और कांग्रेस – ने सरकार बनाने के छह महीने से दो साल के भीतर सरकारी नौकरियों के सभी खाली पद भर देने का वादा किया था. लेकिन, अभी भी करीब पौने तीन लाख सरकारी पद खाली हैं. ऐसी वादाखिलाफी के लिए कानूनी रूप से जवाबदेही तय होनी ही चाहिए.

अंकुश लगाए जाने की जरूरत
मुफ्त की योजनाओं का वादा या नकद रकम देने का वादा आजकल हर चुनावी घोषणापत्र में किसी न किसी रूप में शामिल रहता है. चाहे वह घोषणापत्र किसी भी पार्टी का हो. चुनाव आयोग को भी यह देखना चाहिए कि यह किस हद तक वोटर्स को प्रभावित करने के मकसद से की गई घोषणा होती है और इस पर कहां अंकुश लगाए जाने की जरूरत है. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2022 में 16 जुलाई को कहा था, ‘मुफ्त की रेवड़ि‍यां बांट कर वोट पाने की कोशिशें की जा रही हैं. यह रेवड़ी कल्‍चर देश के विकास के लिए बड़ा खतरनाक है.’

जन कल्‍याण और ‘रेवड़ी बांटने’ के बीच की सीमा रेखा तय करनी होगी. सुप्रीम कोर्ट में मामला है. देखना है, सुप्रीम कोर्ट नेताओं के इस चलन को क्‍या रुख देता है.

Tags: Congress, Mallikarjun kharge, Narendra modi

FIRST PUBLISHED :

November 2, 2024, 23:44 IST

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