Sunday, January 12, 2025
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असली vs नकली : गठबंधनों की जंग में दांव पर विरासत; शिवसेना व राकांपा में विभाजन से नाखुशी, असमंजस में मतदाता

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विजय गुप्ता Published by: शिव शरण शुक्ला Updated Mon, 29 Apr 2024 06:19 AM IST

उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा सीटों वाले महाराष्ट्र के चुनाव पर इस बार कई कारणों से पूरे देश की नजरें हैं, साथ ही सबसे ज्यादा उलझी हुई स्थिति भी यहीं है। यहां दो या तीन नहीं, छह दलों की साख का सवाल है और करीब एक दर्जन दिग्गजों की प्रतिष्ठा दांव पर है।भाजपा पर 2019 से बेहतर करने, कांग्रेस को खाता खोलने और राकांपा व शिवसेना की टूट से बनीं दो पार्टियों को खुद को असली साबित करने की चुनौती है।

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मोदी की गारंटी की टैगलाइन के साथ चार सौ पार के नारे को हकीकत में बदलने के लिए लोकसभा की 48 सीटों वाले महाराष्ट्र का महत्व भाजपा के लिए सबसे ज्यादा है। 80 सीटों वाले यूपी के बाद सबसे बड़े राज्य की कहानी कुछ अलग है। छह बड़े दल, दो गठबंधन…इसी से महाउलझन है। मतदाता असमंजस में हैं। हर दल के समीकरण गड़बड़ा रहे हैं। दो चरणों में हुए कम मतदान ने दलों की धड़कनें और बढ़ा दी हैं। कौन असली-कौन नकली की जंग के बीच यहां बाकी नारे कुंद हैं। आरक्षण जैसे स्थानीय मुद्दे बुलंद । दो चरणों में अभी तक 57.47% मतदान हुआ है, जबकि 2019 में कुल 61.20% और 2014 में 60.32% हुआ था।

पिछले दो चुनाव में एनडीए ने 48 में से 41 सीटें जीतीं, इसलिए 400 पार का लक्ष्य हासिल करने के लिए उस पर कम से कम इतनी सीटें बरकरार रखने का दबाव है। कांग्रेस पिछले चुनाव में जीरो पर सिमट गई थी। उसे फिर से खाता खोलना है। सबसे ज्यादा दबाव भाजपा पर है, जिसने 25 में से 23 सीटें जीती थीं। शिवसेना व राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) में विभाजन के चलते चार अलग-अलग दलों का गठन हुआ है और उनके साथ कांग्रेस और भाजपा की उपस्थिति…बहुते जोगी मठ उजाड़ वाली स्थिति। एक तरफ भाजपा, मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की शिवसेना (शिंदे) और उप मुख्यमंत्री अजीत पवार की राकांपा का महायुति है, जो एनडीए का हिस्सा है। दूसरी ओर, विपक्ष गठबंधन का हिस्सा महा विकास अघाड़ी (एमवीए)-जिसमें कांग्रेस, राकांपा (शरद) व शिवसेना (उद्धव) शामिल हैं। सतह पर दो गठबंधनों के बीच सीधा मुकाबला दिखता है, हालांकि, जमीनी हालात पर करीब से नजर डालें तो, पता चलता है कि असल में दोनों समूहों की सभी छह पार्टियों के बीच एक-एक सीट के लिए वर्चस्व की लड़ाई है।

पहली बार ऐसा…पांच चरणों में हो रहा मतदान
पुणे के एक मराठी अखबार के संपादक कहते हैं, पिछले दो वर्षों में शिवसेना और राकांपा में विभाजन का जो चक्रव्यूह रचा गया, उसके बाद महायुति के भीतर कुछ हद तक डर भी है। यह राज्य में पांच चरणों में चुनाव करवाने से भी परिलक्षित होता है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। यहां तक कि विदर्भ क्षेत्र की 10 और मराठवाड़ा की आठ सीटों के लिए भी मतदान दो चरणों में बांटा गया है। एक समय में कुछ सीटों पर ही ध्यान केंद्रित किया जा रहा है। इस वजह से कई सीटों पर उम्मीदवार तय करने तक में काफी देर हुई। दोनों गठबंधनों में सीट बंटवारे को लेकर भी तनावपूर्ण स्थिति रही। अंततः महाविकास अाघाड़ी में शिव सेना (उद्धव), कांग्रेस और राकांपा के हिस्से में क्रमशः 21, 17 व 10 सीटें आईं। महायुति में छह सीटों पर भाजपा और शिवसेना (शिंदे) में पांचवें चरण की अधिसूचना जारी होने तक रस्साकशी रही। भाजपा 28, शिवसेना 14 और राकांपा 5 और एक सीट महादेव जानकर की राष्ट्रीय समाज पक्ष (आरएसपी) को देने के फार्मूले पर सहमति बनाने का प्रयास है।

ठंडी नहीं पड़ीं मराठा आरक्षण आंदोलन की लपटें 
भाजपा व शिवसेना (शिंदे ) की परेशानी का सबब मराठा आरक्षण आंदोलन भी है, जिसकी लपटें शांत नहीं हुई हैं। कई क्षेत्रों में महायुति के नेताओं को सभाएं तक नहीं करने दी जा रही हैं। मराठवाड़ा की आठ सीटों पर इसका सीधा असर नजर आ रहा है। आरक्षण आंदोलन का नेतृत्व करने वाले मनोज जरांगे पाटिल ने हालांकि मराठों से अपने विवेक से वोट देने को कहा है, लेकिन मराठों में सत्तारूढ़ दलों के प्रति खासी नाराजगी देखी जा सकती है।

यूपी, बिहार से भी ज्यादा जातीय समीकरण
यहां जातीय समीकरण यूपी, बिहार से भी ज्यादा चला है, लेकिन किसी भी जाति का वोट बैंक किसी भी सीट पर इतना नहीं है कि केवल उसी से कोई उम्मीदवार जीत जाए। मराठा के बाद ओबीसी, मुस्लिम और दलित वोटर सबसे ज्यादा हैं। स्थिति यह है कि जहां मराठा उम्मीदवार है, वहां ओबीसी वोट विरुद्ध जाएंगे। प्रभावशाली लोगों में से एक कुनबी समुदाय ओबीसी श्रेणी में आता है। महाराष्ट्र में अनुसूचित जाति का एक बड़ा वर्ग भी है, जो कांग्रेस का वफादार समर्थक रहा है। जानकार बताते हैं कि पिछले 10 वर्षों में तेली और कुनबी समुदायों की वफादारी भाजपा के प्रति हो गई है।

वीबीए का असर
वंचित बहुजन अघाड़ी (वीबीए) भी मैदान में है। पिछली बार उसने 7% वोट हासिल कर कई प्रत्याशियों की हार-जीत तय की थी। भाजपा को इसका फायदा मिला था। इस बार भी वह कई सीटों पर वोटकटवा साबित हो सकता है। राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) भी भाजपा के समर्थन में है। इन सबके बीच मतदाता असमंजस की स्थिति में है, खासकर शिवसेना और राकांपा का। राकांपा के कुछ कार्यकर्ता कहते हैं कि दिल से शरद पवार के साथ हैं, लेकिन अजीत ने जो काम किए, उसे कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं। यही स्थिति शिवसेना के कार्यकर्ताओं के साथ भी है। भाजपा व शिवसेना इस बार हिंदुत्व का नारा भी बुलंद नहीं कर पा रहीं, क्योंकि बाला साहेब के बाद उद्धव ठाकरे को हिंदुत्व का झंडाबरदार माना जाता रहा है जो इस बार कांग्रेस के साथ हैं।

बेरोजगारी, किसानों की दशा जैसे मुद्दे भी
बेरोजगारी, औद्योगिक विकास की कमी, खराब रेल कनेक्टिविटी, सिंचाई परियोजनाओं की कमी, प्रोत्साहन की कमी से नाखुश किसान, लुप्त हो रहा कपास उद्योग, मराठवाड़ा व विदर्भ के कई इलाकों में सूखे की स्थिति आदि ऐसे मुद्दे हैं जो चुनाव के दौरान निश्चित रूप से लोगों के दिमाग में घूम रहे हैं और निश्चित रूप से उम्मीदवारों की किस्मत तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।

राममंदिर न 370, मराठा आरक्षण का मुद्दा सबसे  अहम, दो चरणों में कम मतदान ने बढ़ाईं धड़कनें
भाजपा की रणनीति को मराठवाड़ा और विदर्भ ही नहीं, पूरे राज्य में कठिन स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। भाजपा ने शिवसेना और राकांपा में जो विभाजन कराया, उससे लोगों में नाखुशी दिखाई दे रही है। शरद पवार की राकांपा और बाल ठाकरे के पुत्र उद्धव ठाकरे की शिवसेना टूटने से उनके प्रति सहानुभूति कारक है, जो यहां काम कर सकता है। महायुति के नेता भी मानते हैं, पार्टियों में विभाजन से लोगों में कुछ नाराजगी तो है। नाराजगी इस बात की भी है कि, उनका नाम और चुनाव चिह्न तक ले लिया। भाजपा लागों को यह बताने की कोशिश कर रही है कि असली शिवसेना और असली राकांपा तो उनके साथ है। एक जनसभा में गृह मंत्री अमित शाह ने असली-नकली का मुद्दा उठाया। हालांकि लोगों में इसका प्रतिकूल प्रभाव है। 

 शिवसेना मूलतः बाला साहेब ठाकरे की थी, जिसका चुनाव चिह्न धनुष-बाण था। शिंदे यह चुनाव चिह्न लेने में कामयाब हो गए। इसी तरह अजीत को मूल राकांपा का चुनाव चिह्न घड़ी मिल गया। इसका असर यह है कि शरद पवार वाली राकांपा के नेताओं को लोगों के दिमाग में यह बैठाना मुश्किल हो रहा है कि उनका नया चिह्न तुतारी (तुरही) है। राकांपा (शरद) के प्रत्याशी बार-बार यह अपील करते हैं कि तुतारी का बटन दबाना है। यही नहीं, प्रत्याशी अपनी सभाओं में तुतारी बजवा भी रहे हैं। यही स्थिति शिवसेना (यूबीटी) के साथ भी है। वहीं, जिन नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए, उन्हीं को पार्टी में शािमल करने या उनके साथ गठबंधन करने की मजबूरी पर कई भाजपाई दबी जुबान में सवाल उठा रहे हैं।

इन दिग्गजों की साख का सवाल

  • शरद पवार : पार्टी में टूट के बाद इस बार उन्हें खुद प्रचार में उतरना पड़ रहा है। यहां तक कि अपनी गृह सीट बारामती में बेटी को जिताने के लिए दिन रात एक करना पड़ा है। पहले वह चुनाव में केवल एक या दो जनसभाएं करते थे, इस बार कई जनसभाएं करनी पड़ रही हैं।
  • एकनाथ शिंदे : शिवसेना पर अधिकार जमाने के बाद पहला लोकसभा चुनाव जिसमें भाजपा भी कई जगह उन पर आश्रित है। 
  • अजीत पवार : चाचा शरद पवार की पार्टी से इक्कीस रहने की उम्मीद में दिन रात एक किए हुए हैं। पत्नी सुनेत्रा बारामती में शरद पवार की बेटी व तीन बार की सांसद सुप्रिया से दो-दो हाथ कर रही हैं।
  • उद्धव ठाकरे : पार्टी व चिह्न दोनों छिन गए। विचारधारा न मिलने के बावजूद कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ना पड़ रहा है।
  • देवेंद्र फडणवीस : विभाजन की पटकथा को अमलीजामा पहनाने में मुख्य भूमिका। मराठों का ज्यादा गुस्सा भाजपा नहीं, उनके खिलाफ है। उपमुख्यमंत्री होने के  कारण भाजपा को जिताने का जिम्मा।
  • अशोक चव्हाण : भाजपा में शामिल हुए कांग्रेस के दिग्गज नेता जिनकी मराठों में अच्छी पकड़ रही है।

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