नई दिल्ली: इन दिनों कांग्रेस के भीतर यह मांग तेजी से गहरा रही है कि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष की भूमिका में आना चाहिए। दरअसल विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद पिछली दो लोकसभा में कांग्रेस 10 फीसदी सीटें भी नहीं ला पाई थी, जिसके चलते उसे नेता प्रतिपक्ष का दर्जा नहीं मिला। इस बार पार्टी को 99 सीटें मिली है। इसके बाद कांग्रेस का नेता प्रतिपक्ष के पद का दावा बनता है। कांग्रेस के भीतर एक राय है कि राहुल गांधी को नेता प्रतिपक्ष बनना चाहिए।
पिछले दिनों कांग्रेस वर्किंग कमेटी की मीटिंग से लेकर कांग्रेस संसदीय दल की बैठक तक में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे सहित तमाम नेताओं ने एक सुर से राहुल गांधी के सामने अपनी मांग रखी। इस मांग पर राहुल गांधी ने सोचने के लिए कुछ वक्त मांगा है। नेता प्रतिपक्ष पद को लेकर पार्टी ने फैसला पूरी तरह से राहुल गांधी पर छोड़ा हुआ है। वैसे राहुल गांधी के नेता प्रतिपक्ष बनने को लेकर पार्टी के भीतर मानना है कि अब वक्त आ गया है कि राहुल गांधी को आगे बढ़कर पार्टी को लीड करना चाहिए। पार्टी के एक सीनियर नेता का कहना था कि जिस तरह से राहुल गांधी ने अपनी भारत छोड़ो यात्रा के दौरान पार्टी की अगुवाई की, पार्टी चाहती है कि वैसा ही नेतृत्व वह लोकसभा में पार्टी का करें। पार्टी का मानना है कि नेता प्रतिपक्ष के लिए राहुल गांधी पहली पसंद हैं और नेतृत्व की भूमिका में आने के लिए एक बेहतरीन मौका है।
पार्टी के अंदर क्या चल रहा है?
वहीं पार्टी के एक अन्य नेता का कहना था कि पार्टी के भीतर यह राय पुख्ता है कि राहुल गांधी को अपने पिता वह पूर्व पीएम राजीव गांधी और मां सोनिया गांधी की तरह नेता प्रतिपक्ष बनकर सदन में लोगों के मुद्दे उठाने चाहिए। उनका कहना था कि जिस तरह से उन्होंने भारत जोड़ो यात्रा से लेकर मौजूदा चुनाव तक में आम आदमी से जुड़े जमीनी मुद्दों को पूरी ताकत से उठाया, वैसे ही अब सदन में वह आम आदमी की आवाज बनें।
राहुल को लेकर ये चर्चा
सूत्र का कहना था कि भारत यात्राओं राहुल गांधी को एक निर्विवाद मास लीडर बना दिया है, जिसका लोहा सहयोगी दलों के साथ-साथ सत्तारूढ़ दल सहित देश भी मान रहा है, लेकिन नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद उन लोगों की सोच भी बदलेगी, जो कहीं ना कहीं अब भी राहुल गांधी को लेकर असहज महसूस करते हैं। हालांकि राहुल गांधी को लेकर हो रही ऐसी चर्चाओं के बीच मीडिया राहुल गांधी के संसदीय प्रदर्शन का लेखा-जोखा सामने रखकर उन्हें घेरने की कोशिश हो रही है। गौरतलब है कि आगामी 24 जून से 18वीं लोकसभा का पहला संसद सत्र शुरू होने जा रहा है। माना जा रहा है कि अगले कुछ दिनों में इस मुद्दे को लेकर तस्वीर साफ हो सकती है। अगर राहुल इस भूमिका को स्वीकार नहीं करते तो फिर पार्टी के भीतर मनीष तिवारी, गौरव गोगोई जैसे नेता इस पद के दावेदार हो सकते हैं।
अमेठी और रायबरेली के बीच दुविधा में राहुल
हालिया चुनाव में राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में अपने परिवार की पारंपरिक सीट रायबरेली के साथ-साथ केरल के वायानाड से भी जीते हैं। आने वाले दिनों में उन्हें इन दोनों में से एक सीट छोड़नी होगी। हालांकि राहुल गांधी ने अभी तक यह साफ नहीं किया है कि वह कौन सी सीट छोड़ेंगे। पिछले दिनों उन्होंने रायबरेली और वायनाड दोनों ही जगह अपनी धन्यवाद सभा में लोगों के सामने दोनों सीटों को लेकर मन में चल रही दुविधा का जिक्र किया था। राहुल गांधी का कहना था कि वह जो भी फैसला करेंगे, वह वहां के मतदाताओं को भरोसे में लेकर करेंगे।
रायबरेली की सीट छोड़ेंगे राहुल?
माना जा रहा है कि राहुल गांधी रायबरेली को रखकर वायनाड की सीट छोड़ सकते हैं। रायबरेली को लेकर पार्टी के भीतर तर्क है कि पिछले 70 सालों से रायबरेली और पिछले साढ़े चार दशक से अमेठी से गांधी परिवार का लगातार रिश्ता रहा है। अगर राहुल यह सीट छोड़ते हैं तो कहीं ना कहीं गांधी परिवार का दशकों पुराना रिश्ता छूटेगा। दूसरी ओर एक तर्क यह भी है कि साल 2009 के बाद कांग्रेस ने यूपी में इतना अच्छा प्रदर्शन किया है। 2009 में कांग्रेस को 21 सीटें मिली थी, जबकि पिछले दो बार से यूपी में क्रमशः दो और एक सीट लाने वाली कांग्रेस इस बार छह सीटों पर जीती है। यूपी में अपना जनाधार बढ़ाने के लिए जूझ रही कांग्रेस रायबरेली को छोड़कर यूपी की जनता को निराश नहीं करना चाहेगी।
क्या वायनाड से चुनाव लडेंगी प्रियंका?
दूसरी ओर वायनाड को लेकर चर्चा है कि अगर राहुल यह सीट छोड़ते हैं तो प्रियंका गांधी यहां से चुनाव लड़ सकती हैं। इसके पीछे तर्क दिया जा रहा है कि राहुल के वायानाड छोड़ने से स्थानीय लोगों के बीच की नाराजगी को दूर करने का अच्छा तरीका रहेगा कि गांधी परिवार के किसी सदस्य को वहां से उतार दिया जाए। बताया जाता है कि कांग्रेस की केरल इकाई की ओर से यह सुझाव आया है। हालांकि प्रियंका के चुनावी राजनीति में आने का फैसला पूरी तरह से गांधी परिवार पर निर्भर करता है।